कुत्ते और आदमी का संबंध बहुत पुराना है। यह बहस का विषय हो सकता है कि कुत्ते ने आदमी का फायदा उठाया या आदमी ने कुत्ते का, पर इतना तो तय है कि वफादारी का पैमाना जब नापा जाता है तो मिसाल कुत्ते की ही दी जाती है। कुत्ते और आदमी के संबंधों में यहां कुत्ते ने ही बाजी मारी, फिर क्या वजह है कि आदमी की औकात को घटाने के समय उसकी तुलना बेचारे कुत्ते से ही की जाती है। यह कुत्ते का बड़प्पन है कि वह आदमी के दु:ख-सुख में तो काम आता ही है, उसके नीच कर्मो को भी वह अपने नाम ढोता है।आदमी की तरह कुत्तों की भी कई किस्में हैं। जहां कुछ कुत्ते गली-गली मारे फिरते हैं, वहीं कई कुत्ते आलीशान महलों में अय्याशी कर रहे हैं। इसके बावजूद कुत्तों में वफादारी की एक-सी रेंज है। गली का कुत्ता कितना भी गलीच क्यों न हो, एक बार रोटी देने वाले का उपकार नहीं भूलता। ऐसे ही व्यवहार संभ्रांत किस्म के कुत्ते करते हैं। देश की राजधानी दिल्ली में हालिया घटी एक घटना है, जिसने आदमी और कुत्ते के व्यवहार को सही-सही रेखांकित कर दिया है। राजधानी के पॉश इलाके में एक अधिकारी के यहां जर्मन शेफर्ड कुत्ता अपने मालिक की खूब वफादारी से सेवा कर रहा था। पास में ही एक धोबी था, जिसका उस घर में नियमित आना-जाना था। इस तरह उस कुत्ते से इस आदमी की भी दोस्ती हो गई। वे दोनों खूब हिल-मिल गए थे।धोबी से दोस्ती करके कुत्ता उसकी तरफ से निश्चिंत हो गया। इस बात का फायदा उठाकर उस आदमी ने एक रात उस घर से नकदी साफ कर दी। कुत्ता कुछ नहीं बोला, क्योंकि वह समझता था कि उसने आदमी से दोस्ती की है। यानी कुत्ता तो आदमी का वफादार निकला, मगर आदमी नहीं। कहने को तो आदमी ने कुत्ते जैसी हरकत की, पर यह कथन कहां तक सही है? बेचारे कुत्ते ने उसे आदमी समझा, मगर आदमी ने बता दिया कि वह उससे भी गया-गुजरा है।इससे साफ है कि आदमी के बारे में कुत्तों की सोच गलत साबित हुई। कुत्ते को प्रशिक्षण देकर कितना भी उन्नत बना दिया जाए, मगर वह रहेगा आदमी से पीछे ही। आदमी को यूं ही चालाक नहीं कहा गया है। वह अपने कई गुणों को कुत्ते में समाविष्ट कर सकता है पर अपना मौलिक हुनर कभी नहीं। इसलिए जब अगली बार आप किसी को 'कुत्ते-कमीने' कहकर कोसें, तो दस बार सोचें!
घरों में छुपा संघर्ष: क्यों मानसिक स्वास्थ्य को प्यार चाहिए, शर्म नहीं हम भारतीयों को अपने मजबूत परिवारों पर गर्व होता है, वो अटूट सहारा प्रणाली जो हमें हर मुश्किल दौर में साथ बांधकर रखती है. लेकिन क्या होता है जब उन ज़िम्मेदारियों का बोझ सहना इतना ज़्यादा हो जाता है कि उसे चुपचाप सहना पड़े? क्या होता है जब वो जो सब कुछ संभाले हुए हैं, वो अदृश्य रूप से जूझ रहे हैं? मानसिक स्वास्थ्य की समस्याएं हम में से बहुतों को जकड़ लेती हैं, यहां भारत में, फिर भी हम अक्सर उन्हें कमज़ोरी या किसी तरह की कमी के रूप में खारिज कर देते हैं. लेकिन ये पागलपन या अस्थिरता के संकेत नहीं हैं. ये भीतर से आने वाली पुकारें हैं, मदद के लिए गुहार लगाते हैं, जो ज़िंदगी के थपेड़ों और असफलताओं के बोझ तले दबे हुए हैं. अपने मां बाप या किसी ऐसे भाई या बहन की कल्पना कीजिए जो हमेशा दूसरों की मदद के लिए तैयार रहते है, हर बोझ को अपने कंधे पर उठा लेते है. लेकिन क्या हो अगर वही भाई या बहन डूब रहा हो, चारों तरफ शुभचिंतक मौजूद हों, परंतु मदद के लिए आवाज़ न निकाल पाए? शायद उसकी मुस्कान एक मुखौटा है, जो तन...
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