घरों में छुपा संघर्ष: क्यों मानसिक स्वास्थ्य को प्यार चाहिए, शर्म नहीं हम भारतीयों को अपने मजबूत परिवारों पर गर्व होता है, वो अटूट सहारा प्रणाली जो हमें हर मुश्किल दौर में साथ बांधकर रखती है. लेकिन क्या होता है जब उन ज़िम्मेदारियों का बोझ सहना इतना ज़्यादा हो जाता है कि उसे चुपचाप सहना पड़े? क्या होता है जब वो जो सब कुछ संभाले हुए हैं, वो अदृश्य रूप से जूझ रहे हैं? मानसिक स्वास्थ्य की समस्याएं हम में से बहुतों को जकड़ लेती हैं, यहां भारत में, फिर भी हम अक्सर उन्हें कमज़ोरी या किसी तरह की कमी के रूप में खारिज कर देते हैं. लेकिन ये पागलपन या अस्थिरता के संकेत नहीं हैं. ये भीतर से आने वाली पुकारें हैं, मदद के लिए गुहार लगाते हैं, जो ज़िंदगी के थपेड़ों और असफलताओं के बोझ तले दबे हुए हैं. अपने मां बाप या किसी ऐसे भाई या बहन की कल्पना कीजिए जो हमेशा दूसरों की मदद के लिए तैयार रहते है, हर बोझ को अपने कंधे पर उठा लेते है. लेकिन क्या हो अगर वही भाई या बहन डूब रहा हो, चारों तरफ शुभचिंतक मौजूद हों, परंतु मदद के लिए आवाज़ न निकाल पाए? शायद उसकी मुस्कान एक मुखौटा है, जो तनाव औ
राजनेताओं का असली चेहरा : कब हम जागेंगे? आज की राजनीति के जटिल परिदृश्य में हमें यह स्पष्ट होना चाहिए कि यह प्रणाली टूटी हुई है। कड़वा सच यह है कि राजनेता और पार्टियां आम आदमी के लिए काम नहीं कर रहे हैं, बल्कि अपने स्वार्थ और पैसे के लिए काम कर रहे हैं। सवाल यह है कि हम इस सच्चाई को कब स्वीकार करेंगे और असली बदलाव की मांग करेंगे? लोकतंत्र का भ्रम हमें यह बताया जाता है कि लोकतंत्र एक ऐसी प्रणाली है जहां लोगों की आवाज सुनी जाती है। हम अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करते हैं जो हमारे लिए फैसले लेते हैं, और बदले में वे समाज के हित में काम करते हैं। लेकिन सच्चाई इससे काफी दूर है। राजनेता और पार्टियां अपनी ताकत और पैसे के लिए ज्यादा चिंतित हैं, न कि लोगों के हित के लिए। सिंडिकेट और लॉबी की ताकत पीछे की ओर, शक्तिशाली सिंडिकेट और लॉबी राजनीतिक प्रक्रिया पर काफी प्रभाव डालते हैं। ये समूह बड़े व्यापार, कॉर्पोरेट और अमीर लोगों के हित में काम करते हैं। वे अपने संसाधनों का उपयोग नीति और कानून बनाने में करते हैं, अक्सर आम आदमी के नुकसान में。उदाहरण के लिए, फार्मास्युटिकल उद्योग स्वास्थ्य नीति पर प